मैं शायर तो नहीं23/4/2013 फ़ुर्सत होती तो क्या करता? यही सोच मशरूफ रहता हूँ इस सराय में ठहरने वाले, क्या कभी बस इस से मिलने आयेंगे ? टूटा तारा दबे पाँव गिरा, कहीं-कोई-कुछ माँग ना ले ये शहर भी खूब है, हालत जितनी बिगड़ी, हाल उतना पूछा यादों में भिगा जाना, हर बारिश का हुनर नही कहीं मेरी ही नज़र ना लग जाए तुझे, यही सोच औरों को भी देख लेता हूँ मैं फिर अख़बार में इश्तहार देखा, हो सके तो घर लौट आना नफ़े नुकसान में उलझा मन, क्या ख़ाक मोहब्बत कर पाता राख की कालीख नही, ये रंग है मेरे मिजाज़ का तारे गिनते-गिनते सो जाऊं, ऐसी छत कहाँ मिलेगी ? हद में रहके हद से गुज़रना, शराफ़त भी है और शरारत भी बचपन में सुनी हर कहानी, 'एक समय की बात थी'
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